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झारखंड की राजधानी राँची से लगभग 15 किलोमीटर दूर इरबा में एक विश्व स्तरीय कैंसर संस्थान व अस्पताल है जो बिल्कुल नई तकनीक से लैस है जहाँ मुंबई या दिल्ली ही नहीं बल्कि अमरीका व ऑस्ट्रेलिया से विशेषज्ञ डॉक्टर आते रहते है।
अब्दुर रज्जाक अंसारी मेमोरियल वीवर्स हॉस्पिटल (मेदांता), शाइन अब्दुर रज्जाक अंसारी हेल्थ एजुकेशन एण्ड रिसर्च सेंटर, दी छोटानागपूर रिजनल हैन्डलूम विवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लिमिटेड, सिल्क पार्क, नर्सिंग कॉलेज इत्यादि जो भी राँची में है।
अब्दुर रज्जाक अंसारी (24 जनवरी, 1917- 14 मार्च, 1992) की वजह से है उन्हीं की याद में उनके परिवार ने खास कर उनके बेटे मंजूर अहमद अंसारी व सईद अहमद अंसारी ने मरहूम अब्दुर रज्जाक अंसारी साहब को खिराज-ए-अकीदत व श्रद्धांजलि पेश की है।
अब्दुर रज्जाजक अंसारी 10 साल की छोटी उम्र में अपने परिवार के लोगों के बुने हुए कपड़े को बाजार मे बेचने के लिए 20 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर राँची शहर पहुँचते थे। यहाँ पर अंसारी साहब कपड़े बेचने के बाद एक स्कूल के गेट पर खड़े होकर स्कूल के अंदर घंटों देखा करते थे। यह सिलसिला महीनों तक चला तो आखिरकार एक दिन स्कूल के प्रधानाध्यापक ने सोचा कि यह बालक महीनों से गेट पर खड़ा होकर क्या देखता है? पूछने पर बालक अंसारी ने बताया कि में भी इस स्कूल मे पढ़ना चाहता हूँ। लेकिन मुझे अपने परिवार के लोगों के बुने कपड़े बेंचकर रोजी-रोटी का इंतजाम करना पड़ता है, मेरा गाँव यहाँ से काफी दूर है घर जाने मे काफी देर हो जाता है। प्रधानाध्यापक ने बालक अंसारी का स्कूल में एडमिशन करवा दिया और स्कूल में देर से आने और जल्दी जाने की इजाजत भी बालक अंसारी को मिल गई। आगे की पढ़ाई के लिए अंसारी साहब गाँव से 60 किलोमीटर दूर किसी मिडल स्कूल मे जब दाखिला लेने गए, वहाँ भी यह कहकर दाखिला नहीं दिया जा रहा था कि आप खाने का पैसा देने मे सक्षम नहीं है, इस पर बालक अंसारी ने कहा में मेस में खाना पकाने वालों की मदद करूँगा फिर वहाँ से बालक अंसारी ने 8 वीं की परीक्षा में स्कूल टॉप किया।
अब्दुर रज्जाक अंसारी का विवाह जब नाफिरून निसा से विवाह हुई तो सुहागरात में अपनी पत्नी को तोहफे में किताबें दी और कहा मेरी खुशी के लिए मेट्रिक पास करना, उसके बाद अंसारी साहब ने खुद अपनी पत्नी को पढ़ाया, बाद मे उनकी पत्नी ने न सिर्फ मेट्रिक पास किया, बल्कि स्कूल मे बतौर टीचर बहाल हुई फिर प्रधानाध्यापिका होकर स्कूल से रिटायर हुई। रिटायरमेंट के बाद भी गाँव की लड़कियों को अपने घर पर पढ़ाती रही उनकी इस कोशिश से पूरे इलाके के लड़कियों मे पढ़ाई को लेकर दिलचस्पी बढ़ी, अब्दुर रज्जाक अंसारी के बड़े बेटे मंजूर अहमद अंसारी ने भी इस कहानी को सही बताया है।
अब्दुर रज्जाक अंसारी 1964 में पहली बार बिहार विधान परिषद (MLC) केसदस्य बने, दूसरी बार 1989 में फिर से विधान परिषद के सदस्य बने, इस बार बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने इन्हे हस्तकरघा, रेशम व पर्यटन विभाग मे कैबिनेट मंत्री का पद से नवाज़ा।
बुनकरों को संगठित कर उन्हे आर्थिक रूप से मजबूत करने की कोशिश की
अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी साहब पहले मोमिन आंदोलन जुड़े फिर 1946 से भारतीय राजनीति में सक्रिय थे। वे शुरू से ही मुस्लिम लीग, मोहम्मद अली जिन्नाह और उसकी Two-Nation Theory द्विराष्ट्र सिद्धांत के ख़िलाफ़ रहे। उनकी कोशिशों की वजह से 1946 में छोटानागपुर डिविज़न की पांचों सीटें कांग्रेस की झोली में आई।
उनके इस कारनामे से ख़ुश होकर सरदार पटेल ने उन्हें दिल्ली बुलाया। देश की आज़ादी के बाद 1948 में प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति की बुनियाद डाली और धीरे-धीरे सहकारिता आंदोलन से बुनकरों को जोड़ा। 1978 में ‘दि छोटानागपुर रिजनल हैण्डलूम विवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लिमिटेड’ की स्थापना कर हस्तकरघा उद्योग से बुनकरों को जोड़ा।
अंसारी साहब ने अपने इलाक़े मे कुल 17 स्कूल खोले। 1938 में उन्होंने जो मिडल स्कूल खोला था, वह आज भी उनकी याद को ज़िन्दा रखे हुए है। इन्होंने बाद में इस स्कूल का नाम अपने राजनीतिक गुरू व मोमिन आंदोलन के सबसे लोकप्रिय नेता अब्दुल क़य्यूम अंसारी के नाम पर रखा, जो अब एक सरकारी स्कूल है. इसी कैम्पस में अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी हाई स्कूल भी मौजूद है।
रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर व वरिष्ठ पत्रकार वी.पी. शरण कहते हैं, कि मैं उन्हें एक समाज सुधारक के तौर पर देखता हूँ। उन्होंने देखा कि छोटानागपुर के बुनकरों की हालत ठीक नहीं है। उन्होंने सबसे पहले बुनकरों का विवर्स कोऑपेरेटिव यूनियन बनाया, जो शायद उस वक़्त बुनकरों का भारत में पहला यूनियन था। इसका लाभ बुनकरों को उस वक़्त भी मिला और अब भी मिल रहा है।
वे आगे कहते हैं कि जब बुनकरों की आर्थिक हालत सुधरी तो उन्होंने इनके बच्चे-बच्चियों की शिक्षा की तरफ़ ध्यान दिया। जब वे खुद ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव में बीमार पड़े तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने की सोची. उन्होंने सोचा कि मेरे पास पैसा है तो मैं अपोलो अस्पताल आ गया, लेकिन गांव के लोग तो यहां आने के बारे में सोच भी नहीं सकते. उनके इस सपने को आज उनके बेटे साकार कर रहे हैं।
मोमिन कांफ्रेंस के नेता अमानत अली अंसारी का कहना है कि अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी उनके साथ मोमिन कांफ्रेंस में शामिल रहे। बाद में कांग्रेस में भी साथ बने रहे, वे कहते हैं, “हमारा खेमा अलग-अलग था।’ उनकी सबसे ख़ास बात ये थी कि अगर कोई भी कार्यकर्ता उनके घर पहुंच जाए तो वे उसे बग़ैर खाना खिलाए वापस नहीं भेजते थे, और ये पूछते थे कि वापस जाने के लिए किराया है या नहीं? अगर नहीं तो वे तुरंत अपनी जेब से पैसे निकालकर उस कार्यकर्ता की जेब में डाल देते थे।”
रांची यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर शीन अख़्तर कहते हैं कि अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी साहब मेरे वालिद के दोस्तों में से रहे थे। वे हमेशा राष्ट्रवादी प्रवृति के रहे, वे कभी किसी विवाद में नहीं पड़े न धार्मिक विवाद और न ही किसी राजनीतिक विवाद में, बस खुद को अपनी क़ौम व देश के लिए समर्पित कर रखा था और लगातार अपने मिशन में लगे रहे।
रांची के कांग्रेसी नेता रोशनलाल भाटिया कहते हैं कि अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी साहब को मैं ख़ास तौर पर 1972 से जानता था। ये यक़ीनन गरीब बुनकरों-मोमीनों के मसीहा थे। बुनकरों के लिए हमेशा अपने पार्टी के लोगों व सरकार से लड़ते रहते थे, इन्होंने गरीबों को आर्थिक आज़ादी की लड़ाई में शामिल किया। उन्हें सिर्फ़ मोमिन मुसमलानों के नेता तक सीमित करना उनके साथ नाइंसाफ़ी होगी। उन्होंने गरीबों की आर्थिक आज़ादी की लड़ाई में सबको शामिल किया।
झारखंड अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष गुलफ़ाम मुजीबी कहते हैं कि एक बार उन्होंने मुझे एक कार्यक्रम के लिए आमंत्रित किया तब मैंने कहा था कि आप लोग तो सिर्फ़ बुनकर-अंसारी समुदाय की बात करते हैं, उसमें मैं आकर क्या करूंगा? तब अंसारी साहब ने बड़ा अच्छा जवाब दिया। उन्होंने कहा, “छोटानागपुर में जितनी मुस्लिम आबादी है, उसकी क़रीब 70 फ़ीसदी आबादी सिर्फ़ अंसारी समुदाय की है। वे सब बेहद गरीब व पिछड़े लोग हैं। अगर मैं 70 फ़ीसद लोगों की समस्याओं का समाधान कर देता हूं तो बाक़ियों की समस्याएं खुद ब खुद हल हो जाएंगी.” उनका ये जवाब मुझे बहुत पसंद आया और आज भी याद है।
अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी के बड़े बेटे मंज़ूर अहमद अंसारी कहते हैं कि पूरे गाँव में सिर्फ़ हमारे घर ही गाड़ी थी। गांव में कोई भी बीमार पड़ता तो अब्बू तुरंत अपनी गाड़ी से इलाज के लिए शहर भेजते थे। एक बार वे बीमार पड़े और अपोलो अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। उन्होंने अचानक कहा कि हमलोगों को अल्लाह ने पैसा दिया है, तो हम इतनी दूर आ जाते हैं, लेकिन हमारे गांव का गरीब आदमी यहां आने के बारे में सोच भी नहीं सकता है। बेहतर होता कि हम अपने गांव में ऐसा ही एक अस्पताल खोल लेते फिर उनके जीवित रहते ही में ही 1991 में तत्कालीन गवर्नर शफ़ी कुरैशी के हाथों एक अस्पताल की नींव रखी गई। लेकिन अब्बू की ज़िन्दगी में काम ज़्यादा आगे नहीं बढ़ सका और अब्बू 14 मार्च, 1992 को इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए।
मंजूर अहमद अंसारी ने ये भी कहा हैं कि पहले ये अस्पताल अपोलो के साथ मिलकर खोला गया था। अब मैनेजमेंट मेदांता के हाथों में है। इस अस्पताल का नाम ‘अब्दुर रज़्ज़ाक़ अंसारी मेमोरियल वीवर्स हॉस्पीटल’ है। यहां बुनकरों का इलाज के लिए विशेष सुविधा दी गई है। बुनकरों की ओपीडी फ़ीस मात्र 30 रूपये है। जांच में भी 70 फ़ीसद की छूट दी जाती है। वे बताते हैं, “अब्बू द्वारा स्थापित ‘दि छोटानागपुर रिजनल विवर्स को-ऑपरेटिव यूनियन लिमिटेड’ से जुड़े क़रीब 15 हज़ार बुनकर इस अस्पताल से लाभ उठा रहे हैं।”
Razaul Haq Ansari is a Pasmanda Activist from Deoghar Jharkhand, He works to upliftment for unprivileged lower castes among Muslims [ST, SC and OBC among Muslims]. He is associated with anti-caste and social justice movement since 2018.