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अब तक का सबसे बड़ा झूठ मुसलमानों के बारे में बोला गया कि मुसलमानों में कोई जाति/बिरादरी नहीं होती है।
मुस्लिम एकरूप समाज हैं, मुसलमानों को एक यूनिट मान लिया गया, इस झूठ को अशराफ-सवर्ण मुस्लिम ने अपने स्वार्थ के लिए इतनी बार की बोला कि लोग सच मानने लगे। इस कारण मुसलमानों में कभी जाति का प्रश्न नहीं उठा? सवाल उठा भी तो इन लोगों ने इसे धर्म से जोड़ दिया और मुस्लिमों को बांटने वाला संघी साजिश करार दे दिया, लिहाज़ा मुसलमानों में लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया बहुत धीरे हो गया।
चंद अशराफ – सवर्ण मुस्लिम जातियों की नेतागिरी
समाजिक न्याय की कभी बात कभी उभर कर सामने नहीं आई। चंद अशराफ – सवर्ण मुस्लिम जातियों की नेतागिरी और धार्मिक एवं सामाजिक संगठनों पर वर्चस्व बरकार रहा, अल्पसंख्यक अकलियत कल्याण के नाम पर इन चंद सुरफा बिरादरियों का ही कल्याण हुआ।
पसमांदा समुदाय की 680 से ज्यादा बिरादरियों को बस दरी बिछाने का काम मिला। इन अशराफिया सियासतदानों ने कभी पसमांदा समुदाय के आरक्षण के लेकर कोई बात नहीं, पिछड़े मुस्लिम वर्गों को मंडलीकरण की वजह से ओबीसी वर्ग में शामिल किया गया क्योंकि मंडल कमीशन के लागू होने में इन अशराफ नेताओं का कोई योगदान नहीं था। दुसरी तरफ दलित मुस्लिमों को आज तक अनुसुचित जाति का आरक्षण नहीं मिला है इसके लिए इनके पास कोई योजना न थी न है।
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बीजेपी कहती है
आज अगर बीजेपी कहती है कांग्रेस काल में मुस्लिम तुष्टिकरण हुआ है हम कहते सिर्फ़ अशराफ मुसलमानों का हुआ पसमांदा का नहीं। मुसलमानों और अल्पसंख्यक के नाम पर मिलने वाले कांग्रेस, बीजेपी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राजद इत्यादि राजनितिक दलों के टिकट हमेशा अशराफ समुदाय को ही मिलता है। लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधान परिषद में कभी इन्होंने पसमांदा समुदाय को नेतृत्व करने का मौक़ा नहीं दिया।
पसमांदा मुस्लिम को दरबान बनने का मौका तक नहीं मिला
जिस तरह से 800 साल की मुगलों के शासन में पसमांदा मुसलमानों को कभी दरबान बनने का मौका नहीं मिला। पसमांदा समुदाय के शैक्षणिक, आर्थिक, राजनितिक और सामाजिक भागीदारी पर कभी कोई बहस नहीं हुई।
सर सैय्यद अहमद खान ने 1857 की क्रांति में भाग लेने वाले पसमांदा मुसलमानों के बारे में कहा “जुलाहों का तार तो बिलकुल टूट गया था जो बदज़ात सब से ज्यादा इस हंगामे में गर्मजोश थे”, सर सैय्यद ने अपने संस्थान में फीस महंगी रखी और ताकि पसमांदा मुसलमान अपने बच्चों को दाखिला न करा पाए? कभी मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने मुसलमानों के जातिगत आरक्षण पर चुप्पी साध ली, अपने जीते जी पूरा दमखम लगा दिया और फख्र-ए-कौम अब्दुल कैयूम अंसारी को केन्द्र सरकार में मिनिस्टर नहीं बनने दिया। कांग्रेस के टिकट ज्यादा से ज्यादा अशराफ मुसलमानों को दिलवाते थे।
पसमांदा मुसलमानों में सांसद/विधायक
अभी लोकसभा में कुल 27 मुस्लिम सांसद है जिनमें सिर्फ़ 2- 3 ही पसमांदा वर्ग से आते है राज्यसभा में कुल 17 मुस्लिम सांसद है जिनमें केवल 1-2 ही पसमांदा है।
पसमांदा मुसलमानों की दो चार बिरादरी ही है सांसद/विधायक बन पाई है अभी और कई बिरादरियां है जिन्होंने लोकसभा/विधानसभा का मूंह तक नहीं देखा है। अल्पसंख्यक आयोग हो, या सुन्नी वक्फ बोर्ड हो या अल्पसंख्यक संस्थान हो, या अल्पसंख्यक का कोई और सरकारी इदारा हो इन सभी में पसमांदा समुदाय का प्रतिनिधित्व न के बराबर है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, मौलाना एजुकेशनल फाउंडेशन, उर्दू अकादमी इत्यादि सभी संस्थानों में अशराफ तबकों की नुमाइंदगी आबादी से ज्यादा है वही पसमांदा तबके की न के बराबर नुमाइंदगी है।
इस्लामी संस्थानों/संगठनों जैसे जमीयत उलेमा ए हिंद, जमात ए इस्लामी, ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड, इदार ए शरिया इत्यादि में भी चंद अशराफ बिरादरियों का कब्ज़ा है।
आज भारत आजाद के 76 साल हो गए और इतने सालों में जाति जनगणना को लेकर मुसलमानों में कभी कोई उत्सुकता नहीं दिखी वजह साफ अशराफ मुस्लिम की कुल मुस्लिम आबादी में मुश्किल से 15 फ़ीसदी होंगे वही पसमांदा मुसलमान 85 फ़ीसदी है। यानि पसमांदा समुदाय बहुसंख्यक समुदाय है और अशराफ अल्पसंख्यक समुदाय है। इस लिए अशराफ हमेशा मुस्लिम पहचान की राजनिति करते है यानि भारत में जो मुस्लिम/अल्पसंख्यक राजनीति है असल में वो अशराफिया राजनिति है।
धर्म की राजनिति
धर्म के आधार पर राजनीति, हिंदू मुस्लिम बाइनरी से सांप्रदायिकता फलती फूलती है वोटों का ध्रुवीकरण होता है, जिससे सामाजिक न्याय की राजनीति कमज़ोर होती है, क्योंकी बगैर मुस्लिम एकता के नारे के हिंदू एकता की कल्पना संभव नहीं है।
हिंदू मुस्लिम एकता, गंगा जमुनी तहजीब की राजनीति असल में सवर्ण हिंदू और अशराफ मुस्लिम की राजनीति है दलित, पिछड़े, आदिवासी यानी बहुजन तबका और पसमांदा (अजलाफ – पिछड़े मुस्लिम, अर्जाल – दलित मुस्लिम, आदिवासी मुस्लिम) की एकता ही हिंदू मुस्लिम राजनिति का काट है। पसमांदा आंदोलन सभी धर्मो के दलित, पिछड़े, आदिवासी की एकता पर जोर देती है।
बिहार सरकार की जातिगत जनगणना
अभी बिहार सरकार ने जो जातिगत जनगणना रिपोर्ट जारी किए उससे साफ ज़ाहिर हो गया कि पसमांदा बहुसंख्यक समुदाय है अशराफ अल्पसंख्यक, जबकि राजनीति में अशराफ समुदाय का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी से कई गुना ज्यादा है। पसमांदा विमर्श ने मुसलमानों में मौजूद व्याप्त जातिवाद के प्रश्न को मुख्यधारा के मीडिया में लाने की भरपूर कोशिश की, मुसलमानों में ऊंच नीच, छुआछूत शरीफ़ – रज़ील के अंतर का पर्दाफाश की है, मुस्लिम एकरूपता के भेद को उजागर की है।
देश भर में चल रहा है पसमांदा आन्दोलन
पसमांदा आंदोलन ने कामगार, कारीगर, किसानों, दस्तकार, शिल्पकार, मेहनतकश, मजदूरों, श्रमिकों के सवाल को उठाने का प्रयास किया है। इनके रोज़ी – रोटी पर गहरे संकट को बात की है, इनके न्याय – अधिकार और सम्मान से जीवन यापन करने के प्रश्न को तवज्जों दी है। देश की राजनीत में पसमांदा आंदोलन ने लोकतंत्र, संविधान, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद के हक़ में खुल कर वकालत की है और सांप्रदायिक ताकतों को चुनौती का देने का मन बना लिया है।
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Razaul Haq Ansari is a Pasmanda Activist from Deoghar Jharkhand, He works to upliftment for unprivileged lower castes among Muslims [ST, SC and OBC among Muslims]. He is associated with anti-caste and social justice movement since 2018.